Friday, May 29, 2009

आर्थिक असमानताएं, जिम्बेदार कौन

जिस समय देश आजाद हुआ था उस समय देश में ६१ प्रतिशत किसान थे तथा सकल घरेलू उत्पाद (टोटल जीडीपी) में कृषि क्षेत्र की ५४ प्रतिशत हिस्सेदारी थी, इस समय देश में ५८ प्रतिशत किसान हैं , और सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी घटकर मात्र २० प्रतिशत ही रह गई है! इसे इस तरह से और स्पष्ट समझा जा सकता है की अगर सकल घरेलू उत्पाद १०० मानलें तो आजादी के समय किसानों की प्रति व्यक्ति आय ८८ पैसे थी, तथा शेष ३९ प्रतिशत लोगों की प्रति व्यक्ति आय ११८ पैसे थी , और आज अन्य लोगों की प्रति व्यक्ति आय एक रुपये ९० पैसे की तुलना में किसान की प्रति व्यक्ति आय घटकर मात्र ३५ पैसे ही रह गई है, अर्थात आजादी के समय देश में किसान व अन्य लोगों की आय का अनुपात १ और १.३४ था और आज यह अनुपात १ और ५.४३ हो गया है अगर किसानों की पूर्ववत आय ८८ पैसे से तुलना करें तो अन्य लोगों की इस समय की आय लगभग १४ रुपये बैठती है , अतः पूर्व के ११८ पैसे की तुलना में अन्य लोगों की आय १२ गुना बढ़ गई है! इससे स्पष्ट है कि आजादी के बाद के वर्षों में ही देश में यह असमानता कि खाई बारह गुना और बढ़ गई! यह दिन दूनी रात चौगुनी समाज में बढती हुई आर्थिक असमानता कहीं हमें गहरे अन्धकार की ओर तो नहीं ले जा रही! इस बात पर क्या कभी देश के नीति नियंताओं ने विचार किया है! राजीव गाँधी के बाद (वीपी सिंह , नरसिंह राव , बाजपेई व मनमोहन सिंह ) की सरकारों ने इस गरीबी व अमीरी के बीच की खाई को पाटने की बजाय और गहरा ही किया है, इसके लिए पूर्ण रूप से सरकारी नीतियाँ ही जिम्बेदार हैं! इस दौरान सरकार ने किसानों के लिए बहुत सी योजनायें बनाई, किंतु उन सभी का सीधा लाभ किसानों को न मिलकर उसे बीच वाले ही ले गए, इनमें भ्रष्ट राजनायक , लूट खसोट में लिप्त सरकारी तंत्र , एन कैन प्रकारेण अपनी तिजोरियां भरने वाले पूंजीपति व सटोरिये तथा सभी प्रकार के माफियाओं ने आग में घी का ही काम किया है! प्रजातंत्र में प्रजा मालिक होती है, और मालिक अपने सुचारू कार्य सञ्चालन के लिए अपने प्रतिनिधि अर्थात अपनी सरकार का चुनाव करता है, तथा सरकार अपने कार्य के लिए प्रशासनिक मशीनरी रखती है, एवं इन सभी लोगों को कार्य करने के उपलक्ष में सार्वजनिक कोष अर्थात जनता के खजाने से नोकरी व अन्य सुविधाएँ मिलती हैं, किंतु आज विल्कुल ही उलटी गंगा बह रही है, अर्थात जो नोंकर था वह तो मालिक बन बैठा और जो मालिक था वह नौकर से भी बदतर स्थिति में हो गया! शासन, प्रशासन व अन्य सेवाओ के क्षेत्र में वेतन , भत्ते व अन्य सुविधाएँ दिन दुनी रात चौगुनी की गति से बढाये जा रहे हैं, तथा किसान और मजदूर ( वेतन, भत्ते न पाने वाले किसान और मजदूर ही तो शेष बचे ) इनको चुकाने में विभिन्न प्रकार के टैक्स व मंहगाई की मार से दब कर कराह रहा है! इसी कारण से जहाँ पर गरीब व अमीरों के मध्य अधिक चौडी खाई है, उन्ही क्षेत्रों में नक्सलवाद अपने पाँव पसारता चला जा रहा है! इसी सम्पन्नता व विपन्नता के बीच निरंतर बढती हुई खाई की अनदेखी करने के भयंकर परिणाम होंगे! भारतीय समाज में इस प्रकार दिन प्रतिदिन बढती हुई आर्थिक असमानता आखिरकार हमें कहाँ ले जायेगी! निकट भविष्य में ही इसके दुष्परिणाम हमें न सही किंतु हमारी आने वाली संतति को अवश्य ही भोगने होंगे! क्या हमारे राष्ट्र भक्तों ने देश को आजाद कराने के लिए अपनी जान की कुर्वानियाँ इसी लिए दी थीं की गरीब और गरीब होता रहे, तथा अमीर और अधिक अमीर होता चला जाय! हमारे उन राष्ट्र भक्तों की उस समय यह तमन्ना थी की "हमारा हिंद भी फूलेगा एक दिन लेकिन मिलेंगे खाक में लाखों हमारे गुलबदन पहले, हमें दुःख भोगना लेकिन हमारी नस्ल सुख पाए यह दिल में ठान लो अपने ए हिन्दी मर्दोजन पहले!" अतः इस समय यह अति आवश्यक है की हमारे देश के नीति नियंताओं को कम से कम महात्मा गौतम बुध्द के बताये गए मध्यम मार्ग का अनुशरण तो अवश्य ही करना चाहिए, उनका मध्यम मार्ग था की " वीणा के तारों को इतना ढीला मत रहने दो की वे झंकृत ही न हों, और न इतना अधिक खींचो की वे टूट ही जांय!"