Wednesday, December 29, 2010

आर्थिक अपराधियों को कठोरतम सजा

एक बार मैं बस के इंतजार में अलीगढ बस स्टैंड पर खड़ा था,  तभी  एक तरफ एक जेब कतरे को कुछ लोगों ने पकड़ लिया और उसे इतना पीटा कि उसके मुंह से खून आने लगा, और उसे अधमरा करके छोड़ दिया गया!  तभी मेरे मन में कई विचार आने लगे कि इसे तो चन्द पैसों के चोरी करने के प्रयास के जुर्म मे ही इतनी कठोर सजा दे दी,   किन्तु जो लोग लाखों और करोड़ों क़ी चोरी  भव्य एवं आलीसान भवनों में बैठ कर करते हैं ,  शायद हम जैसे  लोग ही उन्हें महिमा मंडित करने मे कोई  भी कोर कसर  नहीं छोड़ते,  तथा उन्हें योग्य, कुशल, बुद्धिमान, कर्मठ, चतुर  एवं न जाने कितनी उपाधियों से विभूषित करते रहते हैं तथा उनके स्वागत के लिए फूल मालाएं लिए खड़े रहते हैं! देखिये  यह कैसी विडंबना है,  कि जिस एक व्यक्ति ने समाज के एक व्यक्ति क़ी जेब में से चन्द पैसे चुराने का प्रयास भर किया उसे इतनी बड़ी सजा  तुरंत दे दी गई  और  दूसरी तरफ जिन लोगों के  सार्वजनिक धन क़ी चोरी करने के कारण न जाने कितने मासूम बच्चे भूख एवं बीमारी के कारण तड़प तड़प कर मर जाते हैं ,  और  उसी   धन की कमी के कारण  न जाने कितने ही बच्चे  अशिच्छित  रह जाते हैं,  तथा  न जाने देश की कितनी ही जनसँख्या गरीबी एवं नारकीय जीवन से तंग आकर  वर्त्तमान  व्यवस्था  के विरुद्ध हथियार उठा लेने को विवस हो जाती  है , जिन्हें हम  आज  नक्सली कहते हैं, और आज इसी  नक्सली हिंसा में कितने ही निर्दोष लोगों की जाने जा रहीं हैं!  इन बातों से स्पष्ट  होता है कि जब इन सभी बातों  क़ी जड़ में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष  रूप से आर्थिक  अपराधी ही हैं, तो फिर इन  आर्थिक अपराधियों को म्रत्यु दंड या आजीवन कारावास का प्राविधान क्यों नहीं किया जाता, यह प्रश्न अक्सर मस्तिष्क में कोंधता रहता है!
तरह तरह के अपराध समाज में प्राचीन कल से ही होते आ रहे हैं, किन्तु आज एक नए किस्म के अपराधियों का उदय हुआ है, जिन्हें आज का समाज बुरी द्रष्टि से नहीं देखता बल्कि वे लोग कुछ दिन संचार माध्यमों में सुर्ख़ियों में  रहने के कारण  ख्याति अर्जित करते हैं और अंत में समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाकर अयासी जीवन व्यतीत करते हैं! अगर हम अपनी तर्क शक्ति का प्रयोग करके देखें तो यह आर्थिक अपराधी उन चोर, उचक्के , डाकू, बदमाश एवं जेब कतरों आदि  से  ज्यादा  खतरनाक तथा देश द्रोही  होते हैं !   परम्परागत  अपराधी एक विशेष व्यक्ति को ही हानि पहुँचाते   हैं, और ये आधुनिक आर्थिक अपराधी सार्वजनिक धन  का अपहरण करके संपूर्ण समाज एवं राष्ट्र  को ही हानि पहुँचाते हैं, जिसका प्रभाव एक लम्बे समय  तक पूरे समाज एवं राष्ट्र को भुगतना पड़ता है ! एक चोर, जेब कतरा या डाकू  उसी व्यक्ति के धन का हरण  करता है जिसके पास धन होता है , किन्तु ये आर्थिक अपराधी उस सार्वजनिक धन का अपहरण  करते  हैं जो कि गरीब , असहाय व निर्बल वर्ग के उत्थान के साथ साथ सार्वजनिक कल्याण के कार्यों  में लगाया जाता , अतः हम कह सकते हैं कि ये लोग गरीब एवं बेसहारा लोगों के मुंह का निवाला, शिक्षा , तन ढकने के कपडे ,बीमार लोगों की दवाएं और न जाने क्या क्या  छीन कर अपनी तिजोरियां भरकर समाज में राजनेतिक सम्मान एवं अपना दबदबा कायम करते हैं, क्या इन राष्ट्रीय संसाधनों की खुली लूट को जायज  ठहराने वाले लोग अपने आप में एक बड़ा अपराध नहीं कर रहे हैं         

Thursday, July 15, 2010

आनर किलिंग

आज से कुछ समय पहले की बात है एक व्यक्ति की जवान लड़की किसी लडके के साथ चली गई, तब उसके पिता ने कहा कि मेरे परिवार पर आज तक कोई दाग नहीं था, किन्तु इस लड़की ने मुझे गाँव व क्षेत्र मा मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा, अब मैं किस मुंह से घर से बाहर निकलूं, बतातें कि १०-१५ दिन के बाद उसकी अर्थी ही बाहर निकली ! किन्तु अब समय बदल गया है और नए बुद्धिजीवी और तथा कथित समाज सुधारक लोग, इन बातों पर मर मिटने को झूंटी शान कहते हैं, मैं इन लोगों से यह जरूर जानना चाहता हूँ कि फिर सच्ची शान कोनसी है !  क्या रिश्वत से गरीबों का खून चूस कर बड़े बड़े महल और भारी भरकम नामी और बेनामी सम्पति अर्जित करना ही सच्ची  शान है, क्या चुनाव जीतकर अपनी सम्पति में हजारों गुना इजाफा करना ही सच्ची शान है, क्या उद्योगों से कर चोरी करके व मजदूरों का सस्ता श्रम लेकर अकूत धन दौलत इकट्ठी करना ही सच्ची शान है !एक गरीब आदमी के बच्चे  को उठाकर उसके अंगों की तस्करी  करना, फिर भी पुलिस उसकी रिपोर्ट न लिखे और एक उच्च पदस्त अधिकारी के कुत्ते खो जाने पर वहां की पुलिस पूरे सूबे की खाक छानती फिरे , और अपना कुत्ता तलास करना ही  क्या उन लोगों की सच्ची शान है, क्या जान-पूछकर जन्म से पहले ही कन्याओं की हत्या करना ही सच्ची शान है! नई दिल्ली की किसी भी पास कालोनी का सर्वे कराकर देख लीजिये वहां का लिंग अनुपात निरंतर गिरता ही चला जा रहा है, क्योंकि इन कोलोनियों मैं सच्ची शान वाले लोग निवास करते हैं ! आज भी अधिकांश स्कूलों में जो प्रार्थना बोली जाती है , उसकी एक पंक्ति है " निज आन मान मर्यादा का प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे"! मैं पुनः उन बुद्धिजीवियों से यह जानना चाहता हूँ कि आखिर वे कोनसी मर्यादाएं हैं जिनका कि इस ईश बंदना में भी जिक्र किया गया है ! क्या वे कानूनी मर्यादाएं हैं या सामाजिक मर्यादाएं!      

Saturday, June 26, 2010

कल्याणकारी कार्यक्रमों से गरीबी बढती है

बजट के कल्याणकारी कार्यक्रमों से धनी व संपन्न वर्ग के पास अधिक पैसा पहुँचता है  ! जितने भी सरकारी कल्याणकारी कार्यक्रम हैं वे सभी गरीव , निर्धन , वेसहरा लोंगों के लिए संचालित किये जाते हैं किन्तु उनका लाभ हमेशा संपन्न वर्ग ही उठाता है! जब भी देश के वित्त मंत्री गरीब , मजदूर , किसान व वेसहरा लोग के कल्याण के लिए किसी भी योजना कि घोषणा करते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि इस बार तो एन लोग की सूखी हड्डियों में कुछ तो रक्त का संचार होगा ही, लेकिन होता वही है लो पहले से होता चला आ रहा है! इसका सीधा सा अभिप्राय शीर्स पर विराजमान लोग के कथनों से इस प्रकार निकला जा सकता है! पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गाँधी से लेकर कांग्रेस की नैया के खेवनहार राहुल गाँधी तक ने यही कहा है कि जब हम ऊपर से १०० पैसा भेजते हैं तो वह मूल व्यक्ति या लाभार्थी तक पहुँचते पहुंचते मात्र १५ पैसा ही रह जाता है ! इससे स्पष्ट है कि ८५ पैसा कहीं न कहीं भ्रष्टाचार कि भेंट चढ़ जाता है! अब आप  उन्ही के अर्थशास्त्र से स्वयं ही हिसाब लगा लीजीए कि किसी भी कल्याणकारी योजना के लिए १०० पैसे तो जनता से ही इकट्ठा किये जाते हैं ! यहाँ अगर हम उच्च वर्ग व उच्च मध्य वर्ग को अधिकतम कुल जनसँख्या का २० प्रतिशत मान लें और आम जनता को ८० प्रतिशत माने! जब कि टेक्स तो हर व्यक्ति देता है , अगर कोई कारखाने वाला है तो वह टैक्स को उत्पादन पर ही डाल देता है, जिसका भुकतान आम उपभोक्ता को ही करना पड़ता है! अतः गरीब व उन लोगों को, जिनके लिए योजना चलाई जा रही है उनका अंशदान तो हुआ ८० पैसे तथा उन्हें मिले मात्र १५ पैसे ! अतः जब तक हमारी सरकार इन ८५ पैसों को खोजकर सही जगह पर नहीं पहुँचाती, तब तक सरकार क़ी सभी कल्याणकारी योजनायें बेमानी साबित होंगी !  

Wednesday, June 2, 2010

जातीय जनगणना का विरोध क्यों

कुछ दिनों से जातीय आधार पर की जाने वाली जनगणना का विरोध मीडिया एवं समाचार पत्रों में किसी न किसी रूप में छाया हुआ है ! इनलोगों की बेतुकी बातों से ऐसा आभास होता है कि अगर देश की जनगणना जातीय आधार पर की गई तो देश का बहुत बड़ा अनर्थ हो जायेगा ! ऐसा नहीं है कि ये लोग जाति विहीन समाज की संकल्पना में विश्वास रखते हों बल्कि ये एक सोची समझी रणनीति के तहद राजनीतिक विचारधारा से किया जा रहा प्रोपेगंडा है ! पहले तो मैं इन लोगों को यह बता देना चाहता हूँ कि कोई भी देश या राष्ट्र कभी भी जातियों के आधार पर विभाजित नहीं हुआ या हो सकता है , बल्कि देश , राष्ट्र यहाँ तक कि राज्य का विभाजन या मांग धर्म या भाषा के आधार हो सकती है ! अगर ये लोग जाति विहीन समाज की संरचना चाहते हैं , तो इन्हें सर्व प्रथम यह बात रखनी चाहिए थी कि स्कूलों या कहीं भी और किसी भी जगह जाति का कोई भी कालम ही नहीं होना चाहिए , और जब जाति का कोई भी कालम ही नहीं होगा तो बहुत सारी समस्याएं तो स्वतः ही हल हो जाएँगी ! जब अनुसूचित जाति व अनुसूचित जन जातियों की गणना से कोई पहाड़ नहीं गिरा तो पिछड़ी जातियों की गणना से ही कौनसा बज्रपात होंने वाला है ! हमारे यहाँ पर सेवाओं के क्षेत्र में हो पंचायती राज संस्थाओं में प्रतिनिधि चुनने में , सभी में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है , और इन पिछड़े वर्ग की जातियों को आरक्षण २७ प्रतिशत इस आधार पर दिया गया था की १९३१ की जनगणना या सर्वे में उनकी जनसँख्या ५४ प्रतिशत थी ! जरा विचार कीजिये की ८० वर्ष पुराने उन आंकड़ों पर कैसे विस्वास कर लिया जाय , जब भारत , पाकिस्तान और बंगला देश एक ही थे ! अब यह भी तो कहा जा सकता है की अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी ही २६ प्रतिशत है , तो फिर आप उन्हें २७ प्रतिशत आरक्षण क्यों दे रहे हो ! जब आपके पास कोई विस्वसनीय आंकडे ही नहीं हैं तो फिर आप किस आधार पर आरक्षण दे रहे हो !

Tuesday, May 25, 2010

खाप पंचायत वनाम मीडिया

कुछ समय से प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया सभी मैं खाप पंचायतों को एक तरह से खलनायक की भूमिका मैं प्रस्तुत किया जा रहा है! शहर के वातानुकूलित कमरों में बैठे हुए वे बुद्धिजीवी जिनका ग्रामीण परिवेश से कोसों तक का कोई रिश्ता नहीं होगा तथा आधुनिक शहरी रीति रिवाजों एवं पाष्चात्य सभ्यता के आधार पर एक विशेष जाति के सगोत्र विवाहों एवं एक ही गाँव में विवाहों को अपनी बुद्धिमत्ता के आधार पर जायज ठहरा रहे हैं ! मैं उनसे मात्र इतना ही जानना चाहता हूँ कि क्या उन्होंने कभी गाँव में रहकर उनकी रीति रिवाज एवं परम्पराओं को नजदीक से देखा है ! अगर देखा है तो वे बुद्धिजीवी उस जाति में एक साल में मात्र दस सगोत्र विवाह ( चाहे प्रेम विवाह हों या दूसरे ) ही गिनवा दें , और जब वे हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान में मिलाकर दस सगोत्र विवाह व गाँव से गाँव में विवाह नहीं गिनवा पायें तो उन्हें इस प्रकार की आलोचना करने का कोई भी अधिकार नहीं रह जाता है , इस समय मुझे किसी गाने की एक पंक्ति याद आ रही है कि " पायल के गुणों का इल्म नहीं , झंकार की बातें करते हैं " मैं उन बुद्धिजीवियों से एक वार पुनः आग्रह करना चाहता हूँ कि पहले वे उन गांवों में जाएँ और वहां रहकर उनकी रीति रिवाज व परम्पराओं तथा खाप पंचायतों के फैसलों को नजदीक से जाकर देखें और विचार करें कि इनमें क्या क्या बुराइयाँ और क्या क्या अच्छी बातें हैं , तब कहीं जाकर अपनी राय स्पष्ट करें ! इन खाप पंचायतों में उस वर्ग के बुद्धिजीवी , प्रतिष्टित तथा अनुभवी वे लोग जिन्हें उस वर्ग का भारी समर्थन प्राप्त होता है , किसी पीड़ित पक्ष के बुलाने पर इकट्ठा होते हैं और काफी विचार विमर्स के बाद ही किसी अंतिम फैसले पर पहुँचते हैं ! सगोत्र का सीधा सा अभिप्रायः है के दस बारह पीढियां पहले से वे सभी एक ही पूर्वज की संताने हैं , इस प्रकार विशाल ह्रदय से देखें तो वे सभी युवक / युवतियां आपस में भाई - बहन हुए और एक ही गाँव ( ओसतन २००-३०० परिवारों का समूह ) में रहने वाले सभी जातियों के युवक / युवतियां भी भाई - बहन ही हुए और हिन्दू धर्म में भाई - बहन की शादी होना कहाँ तक उचित है ! शहरी परिवेश की बात दूसरी है , वहां तो विभिन्न जाति , धर्म व परम्पराओं के लाखों लोग रहते हैं !